आच्छादन का सिद्धान्त – यदि कोई संविधान-पूर्व विधि किसी मूल अधिकार से असंगत है, तो वह संविधान के लागू होने के बाद से ऐसे मूल अधिकार से आच्छादित हो जाने के कारण मृत प्राय हो जाती है; उसे लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनुच्छेद 13 (1) के अनुसार वह मूल अधिकार से असंगत होने के कारण, ऐसी असंगति की सीमा तक शून्य होती है। किन्तु संविधान से पहले की अवधि में उसके अधीन उत्पन्न अधिकारों और दायित्वों के सम्बन्ध में उसका प्रभाव पूर्ववत् वैध बना रहता है, क्योंकि वह आरम्भ में और इस अवधि के दौरान, वैध थी। ऐसी विधि को, संविधान के बाद, प्रभावशील बनाने के लिए उस पर से मूल अधिकार का आच्छादन हटाना जरूरी होता है। आच्छादन को हटा देने पर वह पुनः सजीव होकर लागू हो सकती है। आच्छादन हटाने के लिए संविधान में उसी मूल अधिकार में संशोधन किया जा सकता है, जिसके द्वारा वह विधि आच्छादित थी, अर्थात् असंगत होने के कारण संविधान के लागू होने के बाद शून्य हो गई थी। यही आच्छादन का सिद्धान्त है, जो अनुच्छेद 13 (1) के अन्तर्गत संविधान से पूर्व बनाई गई ऐसी विधियों को लागू होता है, जो किसी मूल अधिकार से असंगत होती है।
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आच्छादन का यह सिद्धान्त भीखाजी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (AIR 1955 SC 78) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया था। इस मामले में म० प्र० राज्य के एक कानून के अन्तर्गत, जो संविधान से पूर्व बनाया गया था, राज्य सरकार मोटर यातायात के व्यापार पर अपना एकाधिकार (monopoly) स्थापित कर सकती थी और सभी निजी व्यक्तियों को उस व्यापार से बहिष्कृत (oust) कर सकती थी। यह विधि संविधान लागू होने पर अनुच्छेद 19 (1) (छ) का उल्लंघन करती थी। अस्तु संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा अनुच्छेद 19 (6) में संशोधन करके उसमें नया उपखण्ड (2) जोड़कर राज्य को ऐसे व्यापार को करने का एकाधिकार प्रदान कर दिया गया। इस संशोधन को चुनौती दिये जाने पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संशोधन के फलस्वरूप मृतप्राय विधि पुनः सजीव हो गयी है, क्योंकि संशोधन ने उस पर से अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अन्तर्गत मूल अधिकार का आच्छादन हटा दिया है। अब यह विधि असंगति के मापों और अयोग्यताओं से मुक्त हो गयी है, उसे पुनः अधिनियमित करने की आवश्यकता नहीं है।