अपराध भावना क्या है? एवं उसके आवश्यक तत्व क्या-क्या

अपराध भावना (Mens Rea) – मात्र कार्य किसी व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता जब तक उसका मन भी दोषी न हो (Actus non facit reum nisi mens sit rea) इस प्रकार कार्य और आशय दोनों के मिलने से अपराध बनता है।

फाउलर बनाम पैजेट, (1789) 7 टी० आर० के बाद में कहा गया कि कार्य तथा आशय दोनों को संगामी होना चाहिए। मनोभाव के तत्व की आवश्यकता है कि अभियुक्त अपने कार्य के परिणाम से अवगत था जो अपराध बनाते हैं अर्थात् परिणामों को वह पहले ही भाष लिया था। अपराध भावना मस्तिष्क की यह दोषपूर्ण स्थिति है जिसमें अभियुक्त ने कृत्य के ज्ञान तथा परिणाम का पहले ही अनुमान कर लिया था आशय इच्छा की कार्यवाही है जो कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। इच्छा कार्य करने को प्रेरित करती है। आस्टिन के अनुसार आशय कार्य का उद्देश्य है तथा प्रयोजन उसका आधार है। वास्तव में मनःस्थिति का तात्पर्य आपराधिक कार्य को करने का आशय एवं आवश्यक तथ्यों के पूर्वानुमान को

इंगित करता है। कोई व्यक्ति यदि किसी व्यक्ति को शारीरिक क्षति करने के आशय के बिना कार्य करता है तो उसे दण्डित नहीं किया जायेगा।

निर्णीत वाद (Decided Cases)

आर बनाम प्रिन्स, [1875) LR 2 CCR 154] के मामले में अभियुक्त को एक अवयस्क लड़की के अपहरण के लिए आरोपित (Charge) किया गया। अभियुक्त ने यह बचाव लिया कि वह यह नहीं जानता था कि लड़की अवयस्क है, अतः न्यायालय ने निर्धारित किया कि उसने अपहरण तो जानबूझकर किया उसे यह प्रतिवाद नहीं लेने दिया जायेगा कि वह तथ्य से अनभिज्ञ था। न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादी की मनःस्थिति परिस्थिति के अस्तित्व की अनभिज्ञता की कोटि में होना आवश्यक है जो कार्य के स्वरूप को परिवर्तित करती है या उसके अस्तित्व में न होने का विश्वास करती है।

आर बनाम टालसन, [ (1889)2Q.B.D. 168] के मामले में अभियुक्त पर आरोप था कि उसने अपने पहले पति के रहते हुए सात वर्ष के भीतर दूसरे व्यक्ति से शादी कर ली। उसने बचाव लिया कि वह सात वर्ष से पति से अलग रह रही थी तथा उसे विश्वास हो गया था कि उसका पति मर चुका है तब उसने दूसरी शादी की। न्यायालय ने उसे उचित ठहराते हुए उक्त कार्य को सद्भावना के तहत माना।

महाराष्ट्र राज्य बनाम एम० एच० जार्ज, ए० आई० आर० 1965 एस० सी० 722 में जार्ज जो कि जर्मनी का नागरिक था रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना भारत में सोना ला रहा था। जब वह बम्बई के हवाई अड्डे पर उतरा तो 34 किलो सोने की सिल्लियाँ बरामद की गयीं परन्तु इसे उसने जहाज के घोषणा पत्र में घोषित नहीं किया था रिजर्व बैंक ने अधिसूचना जारी किया था। सोना बिना अनुमति के भारत में नहीं लाया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुब्बा राव ने कहा कि विधि की अज्ञानता क्षम्य नहीं है और भले ही जार्ज का आशय भारत में रुकना नहीं था लेकिन उसने विधि का उल्लंघन किया था इसलिए वह दोषी है।

अपराध भावना के सिद्धान्त के अपवाद

सामान्य सिद्धान्त यह है कि कार्य (actus reus) और दुराशय (Mens rea) मिलकर ही अपराध गठित करते हैं। परन्तु इस सिद्धान्त के अपवाद भी हैं। अर्थात् कभी-कभी केवल कार्य और केवल आशय ही अपराध गठित करते हैं।

अपवाद (Exceptions)

निम्न मामले अपवाद स्वरूप आते हैं

(i) कठोर दायित्व (Strict Liability)

जिन मामलों में अधिनियम द्वारा कठोर दायित्व का प्रावधान बना दिया गया हो, उन मामलों में अपराध भावना का होना या न होना असंगत होता है क्योंकि ऐसे मामलों में विधि-विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्तियों को आवश्यक रूप से उत्तरदायी ठहराया जाता है।

(ii) लोक अपदूषण (Public Nuisance )

जन-कल्याण हेतु कुछ ऐसे नियम बनाये जाते हैं जिनका उल्लंघन करना मात्र ही दण्डनीय घोषित कर दिया जाता है क्योंकि ऐसे मामलों में ढोल दिये जाने से सामाजिक सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो सकता है।

(iii) विधि की अज्ञानता अपराध मार्जन नहीं मानी जाती।

(iv) जहाँ अपराध भावना साबित करना कठिन हो।

(v) ऐसे मामले जिनका स्वरूप तो आपराधिक हो, परन्तु वे वास्तव में दीवानी विधि से सम्बन्धित हों।

अपराध-भावना (दुराशय के सिद्धान्त) का भारतीय दण्ड संहिता में प्रयोग

(Application of Mens Rea to Indian Penal Code)

अंग्रेजी विधि में अपराध भावना को चाहे जो स्थान प्राप्त हो परन्तु भारतीय दण्ड संहिता में इसको स्पष्ट रूप से कोई विशेष महत्व नहीं प्रदान किया गया है। संहिता में कहीं भी अपराध भावना शब्द प्रयुक्त नहीं किया गया है। प्रत्येक अपराध की परिभाषा तो उपबन्धित की हो गयी है, साथ ही अभियुक्त की यह मानसिक स्थिति भी उल्लिखित की गयी है। जिसके कारण वह कार्य दण्डनीय होता है। इस प्रकार, चोरी के प्रकरण में चोरी का आशय, हत्या के प्रकरण में हत्या का आशय तथा गम्भीर चोट पहुंचाने में गम्भीर चोट पहुँचाने का आशय आवश्यक है। इस सम्बन्ध में जे० डी० मेन का मत है कि “प्रत्येक अपराध परिभाषित है और परिभाषा में यह बता दिया गया है कि अभियुक्त ने क्या किया है। इतना ही नहीं, बल्कि यह भी बता दिया गया है कि कार्य करते समय कार्य के सन्दर्भ में अभियुक्त की कैसी मनोदशा हो। इसलिए जानबूझकर, बेईमानी से, कपटपूर्ण ढंग से, साशय, लापरवाही से आदि शब्दों का प्रयोग लगभग सभी परिभाषाओं के साथ किया गया है।”

निर्णीत वाद (Decided Cases)

नाथू लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए० आई० आर० 1966 एस० सो० 43 के बाद में नाथूलाल अनाज का व्यापारी था। उसे आवश्यक वस्तु अधिनियम के अन्तर्गत अभियोजित किया गया था। अपने बचाव में उसने कहा कि उसने अधिनियम के प्रावधान के आशय का उल्लंघन नहीं किया था क्योंकि गेहूँ रखने के पूर्व ही लाइसेन्स के लिए आवेदन पत्र दे दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि दुराशय को अपराध का आवश्यक तत्व तब माना जाना चाहिए जब किसी संविधि के शब्दों को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया जाय।

यह आपराधिक विधि का सिद्धान्त है कि हर व्यक्ति को अपने किये हुये कार्यों के परिणाम को भुगतना पड़ता है चाहे उसने उस कृत्य को दोषी मन से किया हो या न किया हो। यूनियन आफ इण्डिया बनाम जे० अहमद [ (1979) 2 SCC 286] के बाद में यह प्रश्न उठाया गया था कि अनुशासनात्मक कार्यवाहियों में दुर्व्यवहार को दुराशय के अन्तर्गत लाया जाय। उच्चतम न्यायालय ने नकारात्मक उत्तर देते हुए यह विचार व्यक्त किया कि कर्तव्य पालन में की गयी घोर उपेक्षा दुराशय से युक्त नहीं हो सकती।

भारतीय दण्ड संहिता में साधारण अपवाद दुराशय को नियन्त्रित करता है। भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत कुछ ऐसे अपराध है जहाँ दुराशय को प्रकट नहीं किया गया है। जैसे- भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध करना, राजद्रोह, व्यपहरण एवं अपहरण सिक्कों एवं स्टाम्पों का कूटकरण।

दण्ड प्रक्रिया (संशोधन) अधिनियम, 2005 द्वारा भारतीय दण्ड संहिता में कौन-सी नई धाराएँ अन्तःस्थापित की गयी हैं?

हीरालाल हरीलाल भगवती बनाम सी० बी० आई० (ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 2545) तथा रामनारायण पोपली बनाम सी० बी० आई० (ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 2748) के मामलों में छल तथा कूटरचना के अपराधों में दुराशय का होना आवश्यक माना गया है।

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