भारत के संविधान में संशोधन – भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया अनु 368 में दी गई है। संविधान निर्माताओं ने जान बूझकर संवैधानिक संशोधन की ऐसी प्रक्रिया रखी है जो न ब्रिटिश संविधान की तरह आसान है और न अमेरिका या आस्ट्रेलिया की तरह कठिन ही। परन्तु कुछ अन्य अनुच्छेदों में साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा संशोधन की व्यवस्था है और उच्चतम न्यायालय के विनिश्चयों के अनुसार कुछ ऐसे उपबन्ध भी हैं, जो संशोधित किये ही नहीं जा सकते। इसलिये संशोधन की दृष्टि से संविधान के उपबन्धों का निम्नलिखित प्रवर्गों (Categories) में अध्ययन किया जा सकता है।
(1) सामान्य विधायी प्रक्रिया (Amendment by simple Majority )
कुछ अनुच्छेदों के उपबन्धों में साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा ही संशोधन किया जा सकता है, जैसे अनु० 4,169 और 239 के संसद को प्राधिकृत करते हैं कि वह साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा उनमें दिये गये अनुच्छेदों के उपबन्धों में संशोधन कर सकती है।
(2) विशेष बहुमत द्वारा (Amendment by special Majority )
अनु0 368 में संशोधन की सामान्य प्रक्रिया यह है कि संविधान संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है, पर ऐसी विधेयक प्रत्येक सदन की सम्पूर्ण सदस्यता के बहुमत से तथा उसमें उपस्थित और मत व्यक्त करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित होना चाहिये। इसके बाद वह विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिये पेश किया जायेगा और राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर संविधान संशोधित हो जायेगा।
केवल अनुच्छेद 368 के खण्ड (2) के परन्तुक में दिये गये उपबन्धों को छोड़कर संविधान के शेष सभी उपबन्ध इस प्रक्रिया द्वारा संशोधित किये जा सकते हैं।
(3) राज्य विधान मण्डलों की अनुमति द्वारा (By special Majority and Ratification of States)
अनु0 368 के खण्ड (2) के परन्तुक में कुछ उपबन्धों के बारे में जो देश के परिसंघीय ढाँचे से सम्बन्धित है, यह उपबन्धित किया गया है कि इन उपबन्धों
में संशोधन के लिये संशोधन विधेयक संसद के प्रत्येक सदन के सम्पूर्ण सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मत व्यक्त करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित हो जाने पर राज्य विधान मण्डलों को भेजा जायेगा और कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा प्रस्ताव पारित करके संशोधन का अनुमोदन करने के बाद संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिये भेजा जायेगा। राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर संविधान संशोधन हो जायेगा। यह प्रक्रिया निम्न प्रावधानों में संशोधन से सम्बन्धित है-
- अनुo 54, अनु0 55, अनु० 73, अनु० 162 या अनु० 241 में, या
- भाग 5 के अध्याय 4, भाग 6 के अध्याय 5 या भाग 11 के अध्याय 1 में, या
- सातवीं अनुसूची की किसी सूची में, या
- अनु० 368 के उपबन्धों में।
मूल अधिकारों में संशोधन (Amendment of Fundamental Rights)
सर्वप्रथम शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (AIR 1951 SC 458) में उच्चतम न्यायालय ने तय किया कि संविधान के संशोधन की शक्ति, जिनमें मूल अधिकार भी शामिल है, अनु 368 में निहित हैं।
किन्तु गोलक नाथ बनाम पंजाब सरकार (AIR 1967 SC 1643) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि संसद को मूल अधिकारों को संशोधन करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है, क्योंकि संविधान संशोधन को अनु० 13 के अन्तर्गत विधि माना गया है। संविधान में मूल अधिकारों को नैसर्गिक स्थान प्राप्त है।
उक्त वाद से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने हेतु संविधान का 24वाँ संशोधन अधिनियम 1971, पारित किया गया, जिसके द्वारा अनु० 368 के खण्ड (2) के पूर्व एक नया खण्ड जोड़ा गया, जो यह उपबन्ध करता है कि “संविधान में किसी बात के होते हुए संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए संविधान में किसी उपबन्ध का परिवर्द्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन इस अनुच्छेद में दी गई प्रक्रिया के अनुसार कर सकेगी।”
क्या संसद को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्राप्त है ? (Whether the Parliament has got Plenary Power to amend the Constitution?)
केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य (AIR 1973 SC 1461) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यद्यपि अनु० 368 के अन्तर्गत संसद को संविधान में संशोधन की विस्तृत शक्ति प्राप्त है, किन्तु वह असीमित नहीं है, और यह ऐसा संशोधन नहीं कर सकती है, जिससे संविधान के मूल तत्व या उसका आधारभूत ढाँचा (Basic) Structure) नष्ट हो जाय। संसद की इस शक्ति पर विवक्षित परिसीमायें हैं, जो स्वयं संविधान में निहित हैं। सही स्थिति यह है कि संविधान का प्रत्येक उपबन्ध संशोधित किया। जा सकता है, बरातें कि इसके परिणामस्वरूप संविधान का आधारभूत ढाँचा (Basic Structure) और आधारभूत तत्व वैसा ही बना रहे।
आधारभूत ढांचे का सिद्धान्त (Basic Structure’s Theory)
आधारभूत ढाँचा (Basic Structure) क्या है, इसकी परिभाषा नहीं दी गई है। उदाहरणों द्वारा इसको समझाया गया है। केशवानन्द भारती के मामले में सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग करते हुए न्यायमूर्ति सीकरी ने निम्नलिखित संवैधानिक लक्षणों को संविधान के आधारभूत ढाँचे में माना-
- संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution);
- लोकतन्त्रात्मक गणराज्य (Democratic Republic);
- धर्म निरपेक्षता (Secularism);
- शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Powers);
- परिसंघीय संविधान (Federal Constitution);
श्रीमती इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण (AIR 1975 SC 2299) के मामले में न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने निम्नलिखित बातों को आधारभूत ढाँचे का आवश्यक तत्व माना-
- विधि का शासन (Rule of law)
- न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति (Power of Judicial Review),
- लोकतन्त्र (Democracy)।
न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले में उच्चतम न्यायालय की अनु० 32 के अधीन शक्ति को आधारभूत ढाँचा माना गया।
केशवानन्द भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यही निर्धारित किया गया किnसंसद संविधान के आधारभूत ढाँचे (Basic Structure) में किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं कर है।
संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम
केशवानन्द भारती के केस में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप संसद ने बयालीसवाँ संविधान संशोधन पारित किया, जिसके द्वारा अनु० 368 में खण्ड (4) व (5) जोड़ दिये। खण्ड (4) में यह उपबन्ध कर दिया गया कि अनु० 368 के अधीन किये गये संशोधनों पर किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर आपत्ति नहीं की जाएगी। खण्ड (5) में यह उपबन्ध था कि संविधान संशोधित करने की संसद की शक्ति पर किसी प्रकार निर्बन्धन नहीं होगा।
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (AIR 1980 SC 1789) में उच्चतम न्यायालय ने अनु 368 के खण्ड (4) व (5) को जो बयालीस संशोधन द्वारा जोड़े गये थे, असंवैधानिक घोषित करते हुए निर्णय दिया कि इनके द्वारा संसद को संविधान के संशोधन की असीमित शक्ति प्रदान की गई है, जिससे संविधान का आधारभूत ढाँचा नष्ट होता है।
वामन राव बनाम भारत संघ AIR 1981 SC 271) के वाद में अनु० 31 – ख और नवीं अनुसूची की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गई कि उनसे संविधान का आधारित ढाँचा, नष्ट हो गया है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आधारित ढाँचे का सिद्धान्त केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य में 24 अप्रैल, 1973 को प्रतिपादित किया गया था, इसलिये जो कानून उस तिथि से पहले नवीं सूची में रख दिये हैं, उनको चुनौती नहीं दी जा सकती।
भारतीय संविधान के अनुसार संघ तथा राज्यों के बीच विधायी शक्तियों के वितरण की योजना की विवेचना कीजिए।
परन्तु जो कानून उस तारीख के बाद नवीं अनुसूची में रखे गये हैं, उनका परीक्षण किया.
जायेगा। यदि वह आधारित ढाँचे को नष्ट करते हैं, तो असंवैधानिक होंगे।
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, तथा वामन राव बनाम भारत संघ, में उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती व केरल राज्य में प्रतिपादित आधारित ढाँचे के सिद्धान्त को 24 अप्रैल 1973 (जिसे केशवानन्द भारती के केस में निर्णय किया गया था) से पहले के संविधान संशोधनों पर लागू करने से इन्कार कर दिया।
एम० नागराज बनाम भारत संघ, (ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 71) के बाद में संविधान के 77वें, 81वें एवं 85वें संशोधन की विधिमान्यता को उच्चतम न्यायालय में इस आधार पर चुनौती दी गई कि इन संशोधनों के द्वारा संविधान के आधारभूत ढाँचे को नष्ट कर दिया गया है। परन्तु उच्चतम न्यायालय के पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने निर्णय दिया कि उपरोक्त संशोधनों के द्वारा संविधान के मूलभूत ढाँचे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है, अतः उक्त संशोधन संवैधानिक हैं।
आई० आर० सेलो बनाम तमिलनाडु, (ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 86 ) के वाद में उच्चतम न्यायालय के 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने यह निर्णीत किया कि 9वीं अनुसूची में 24 अप्रैल, 1973 के पश्चात् सम्मिलित किये गये अधिनियमों की विधिमान्यता को चुनौती इस आधार पर दी जा सकती है कि उनके द्वारा संविधान के मूलभूत ढाँचे को नष्ट किया गया है।