संघ तथा राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण – संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन दो दृष्टियों से किया गया है-
- विधान के विस्तार क्षेत्र की दृष्टि से,
- विधान के विषयों की दृष्टि से।
1.विधान के विस्तार क्षेत्र की दृष्टि से (With respect to Territory)
अनुच्छेद 245 यह उपबन्धित करता है कि इस संविधान के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद भारत के सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधान मण्डल उस सम्पूर्ण राज्य के अलावा उसके किसी भाग के लिए विधि बना सकेगा खण्ड (2) यह उपबन्धित करता है कि संसद द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण से अमान्य नहीं समझी जायेगी कि वह भारत के राज्य-क्षेत्र से बाहर भी लागू होती है।
राज्य क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त (Theory of Territorial Nexus )
उपर्युक्त सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुच्छेद 245 (1) के अनुसार, संसद संपूर्ण भारतीय राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए और राज्य के विधान मण्डल अपने-अपने राज्यों के राज्य-क्षेत्रों या उनके किन्हीं भागों के लिये कानून बना सकते हैं और संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के सम्बन्ध में विशेष रूप से और स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 245 (2) यह उपबन्धित करता है कि उन्हें इस आधार पर अमान्य नहीं समझा जाएगा कि वे भारतीय राज्य-क्षेत्र से बाहर लागू होते हैं।
स्टेट ऑफ बाम्बे बनाम आर० एम० डी० सी०, (AIR 1957 SC 799) के मामले में बम्बई राज्य को उसके एक अधिनियम के अन्तर्गत लॉटरी और इनामी विज्ञापनों पर करारोपण का अधिकार प्राप्त था। अतः यह कर बंगलौर से प्रकाशित उत्तरवादी के उस समाचारपत्र पर भी लगाया गया, जिसका बम्बई राज्य में पर्याप्त प्रसारण था और जिसके द्वारा वह इनामी प्रतियोगिताएँ चलाता था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि समाचार-पत्र पर कर लगाने के लिये उचित क्षेत्रिक सम्बन्ध मौजूद थे। क्षेत्रिक सम्बन्ध के मामले में दो बातें आवश्यक हैं-
- विषय-वस्तु में और उस राज्य में जो उस पर कर लगाना चाहता है, वास्तविक सम्बन्ध हो, भ्रामक सम्बन्ध नहीं और
- दायित्व जो लगाया जाता है उस सम्बन्ध के प्रसंगानुकूल होना चाहिए।
विधान का विषयों की दृष्टि से विधायी सम्बन्ध (With respect to Subject matter)
अनुच्छेद 246 संसद और राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा बनाये जाने वाले कानूनों को तीन विषय सूचियों में विभाजित करता है – (1) संघ-सूची (Union List), (2) समवर्ती सूची (Concurrent-List), (3) राज्य सूची (State-List)! ये विषय सूचियाँ संविधान की सप्तम् अनुसूची में उपबन्धित की गई हैं।
अनुच्छेद 246 (1) के अन्तर्गत संसद को ‘संघ-सूची’ में उल्लिखित विषयों पर, और 246 (3) के अन्तर्गत राज्यों के विधानमण्डलों को ‘राज्य सूची’ में उल्लिखित विषयों पर, कानून बनाने की अनन्य शक्ति (exclusive power) प्रदान की गई है, जबकि अनुच्छेद 246 (2) के अन्तर्गत समवर्ती सूची में उल्लिखित विषयों पर संसद और राज्य- विधानमण्डलों, दोनों को, सामान्य रूप से कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गई है।
केन्द्रीय विधायी शक्ति की सर्वोच्चता (Supremacy of the Central Legislative power)
अनुच्छेद 246 (3) के अन्तर्गत राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की जो शक्ति राज्य मण्डलों को प्रदान की गई है, यह अनुच्छेद 246 के खण्ड (1) और खण्ड (2) के अनुसार केन्द्र को संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने की प्रदान की गई शक्ति के अधीन है।
अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers)
उपर्युक्त उपबन्धों के अतिरिक्त, अनुच्छेद 248 अवशिष्ट विधायी शक्तियों को केन्द्र सरकार में निहित करता है। अस्तु जो विषय उपर्युक्त किन्हीं भी विषय-सूचियों में शामिल नहीं हैं, उन पर केन्द्र सरकार को कानून बनाने की अनन्य शक्ति प्रदान की गई है।
भारत संघ बनाम एच० एस० ढिल्लन (AIR 1972 SC 1061) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार की अवशिष्ट शक्ति के बारे में कहा है कि यह देखना आवश्यक नहीं है कि वह विषय, जिस पर केन्द्र सरकार ने कानून बनाया है, संघ-सूची में शामिल है या नहीं, बल्कि इतना देखना ही पर्याप्त होगा कि वह राज्य सूची या समवर्ती- सूची में शामिल नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने इण्टरनेशनल टूरिज्म कारपोरेशन बनाम हरियाणा राज्य (AIR 1981 SC 774) के मामले में उक्त दृष्टिकोण को बदल दिया है। और यह अभिनिर्धारित किया है कि केन्द्र को अवशिष्ट शक्ति का इतना व्यापक प्रयोग नहीं करना चाहिए, जो राज्य विधान मण्डल की विधायी शक्ति को बिल्कुल क्षीण कर देती हो और संघात्मक सिद्धान्त को प्रभावित करती हो।
सूचियों के निर्वाचन के सामान्य नियम, (Principles of interpretation of Lists)
भारतीय न्यायालयों द्वारा तीनों सूचियों में वर्णित विभिन्न सरकारों की शक्तियों के निर्धारण और निर्वचन के लिए निम्नलिखित नियम स्थापित किये हैं-
(1) संघशक्ति की प्रमुखता (Predominance of the Union List) ।
(2) तत्व एवं सार का सिद्धान्त (Doctrine of Pith and Substance)- अनुच्छेद 246 के उपबन्धों को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ‘तत्व और सार का सिद्धान्त’ उस समय लागू करते हैं, जब तक विधानमण्डल द्वारा बनाया गया कोई कानून दूसरे विधानमण्डल के विधायी विस्तार क्षेत्र का भी अतिक्रमण करता है या करने लगता है।
बम्बई राज्य बनाम बालसरा (AIR 1951 SC 318) के मामले में बम्बई राज्य के मद्य निषेध अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि उससे संघ- सूची में उल्लिखित विषय ‘मादक द्रव्यों के आयात-निर्यात’ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्य सूची के विषय से सम्बन्धित है, संघ-सूची से नहीं’ इसलिए वह संवैधानिक है।
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(3) छद्म विधायन का सिद्धान्त (Doctrine of colourable legislation) – अनुच्छेद 246 के अन्तर्गत विधायी शक्तियों का विभाजन केन्द्र और राज्यों के बीच किया गया है, उसके अन्तर्गत किसी विधायिका ने कार्य किया है या उसके बाहर? ऐसा प्रश्न तब उठता है, जब कोई विधायिका किसी कानून को बनाने में ऊपरी तौर से अपनी शक्तियों के अन्दर कार्य करती हुई दिखाई देती है, किन्तु यथार्थतः या सारतः वह संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है। इस प्रकार का अतिक्रमण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है। ऐसे विधायन को छद्म विधायन कहते हैं और ऐसे मामलों में अधिनियम का सार (substance) महत्वपूर्ण होता है।
आर० एस० जोशी बनाम अजित मिल्स लि०, (AIR 1977 SC 1279) के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने छद्म विधायन की परिभाषा करते हुए कहा है कि उद्मता से तात्पर्य अक्षमता से है। कोई वस्तु तब छद्म होती है, जब वह वास्तव में उस रूप में नहीं होती है, जिस रूप में वह प्रस्तुत की जाती है। छद्मता में दुर्भावना का तत्व नहीं होता है।