हिन्दी कहानी के विकास का इतिहास – मानव के जन्म के साथ ही कहानी का भी विकास हुआ है। कहानी का उद्भव भारत ‘को ही माना जाता है। कहानी कला के विवेक और प्रसिद्ध कहानीकार श्री विनोद शंकर व्यास में हिन्दी कहानी का आरम्भ जातक कथाओं तथा ‘बृहत्कथा’ में से खोज निकालने का प्रयत्न किया है। डॉ रामरतन भटनागर ने हिन्दी कहानी का सम्बन्ध श्री गोकुलनाथ की ‘चौरासी ‘वैष्णवन की वार्ता’ से जोड़ते हुए कहा है कि यह ग्रन्थ- “कदाचित हिन्दी का पहला पद्य कहानियों का संग्रह है।” किन्तु सच तो यह है कि हम हिन्दी कहानी की पृष्ठभूमि स्वरूप भले ही इन ग्रन्थों को मान लें किन्तु हिन्दी कहानी का आरम्भ इनसे नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार जटमल की ‘गोरा बादल की कथा’, लल्लूलाल कृत ‘प्रेमसागर’ और ‘सुखसागर’, सदल मिश्र कृत ‘नासिकेतोपाख्यान और इंशा अल्ला को ‘रानी केतकी की कहानी’को हम हिन्दी कहानियों के आधार भूमि के रूप में ही स्वीकार कर सकते हैं जबकि कुछ लोग ‘रानी केतकी की कहानी’ में कहानी शब्द जुड़ा होने के कारण उसे हिन्दी की प्रथम कहानी बताते हैं किन्तु गम्भीरता से विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सभी कृतियों में आधुनिक कहानी कला का अभाव है। कथानक को छोड़कर इनमें कहानी के अन्य तत्वों का अभाव है।
हिन्दी कहानी का सूत्रपात
हिन्दी में कहानी की कला पाश्चात्य साहित्य से अंग्रेजी और बंगला के माध्यम से आई है। अतः आरम्भ में अंग्रेजी तथा बंगला की कृतियों के रूप में अनुवाद तथा भावानुवाद ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुए। शेक्सपियर के नाटक ‘सोम्बलाइन’ (Cymbline) और एन्थस का ‘टाइमन ऑफ एथेन्स’ (Timon of Athens) कहानी रूप में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुए। श्री पार्वतीनन्दन तथा श्रीमती बंग महिला ने अनेक बंगला कथा कृतियों के हिन्दी में कहानी रूप में अनुवाद किये हिन्दी कहानियों के श्रीगणेश में इन अनुदित रचनाओं ने भी मदद पहुँचाई। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी कहानी का श्रीगणेश बीसव शताब्दी से पहले नहीं हो सका। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही हिन्दी कहानी का प्रारम्भ माना जा सकता है। डॉ. श्रीकृष्णलाल ने सत्य ही लिखा है, “हिन्दी कहानियों का वास्तविक प्रारम्भ प्रयाग की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ से होता है, जिसे 1900 ई. में इण्डियन प्रेस ने चलाया।”
हिन्दी की प्रथम कहानी
हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी कौन-सी है, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ निर्णय देना कठिन सा है। डॉ. रामरतन भटनागर के शब्दों में, “इंशाअल्लाह की ‘रानी केतकी की कहानी’ हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है।” किन्तु हम पहले ही बता चुके हैं कि इसमें कथानक के अतिरिक्त कहानी के अन्य तत्वों का अभाव होने से कहानी नहीं कहा जा सकता। डॉ. श्रीकृष्णलाल ने सन् 1900 में प्रकाशित किशोरीलाल गोस्वामी की कहानी ‘इन्दुमती’ को हिन्दी की सबसे पहली कहानी स्वीकार किया है किन्तु यह कहानी बंगला कहानी की छायानुवाद है। अतः इसे हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी नहीं कह सकते। रामकृष्णदास और श्रीकृष्णदास ने पाश्चात्य कहानी कला की दृष्टि से सन् 1907 में प्रकाशित बंग महिला की ‘दुलाईवाली’ को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी बताया है जबकि डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने 1903 ई. में प्रकाशित आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ कहानी को हिन्दी की सर्वप्रथम कहानी घोषित किया है। सन् 1909 में विद्यानाथ शर्मा की ‘विद्याबहार’, वृन्दावनलाल वर्मा की ‘ राखी बन्द भाई’ और कविवर मैथिलीशरण गुप्त की ‘नकली किला’ कहानियाँ प्रकाशित हुई किन्तु ये सब प्रेमाख्यानों से प्रभावित थीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ‘सरस्वती’ पत्रिका में 1910 ई. तक की छपी कहानियों के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। 1911 ई. से प्रसाद के सम्पादकत्व में ‘इन्दु’ मासिक पत्रिका निकाली जिससे हिन्दी में मौलिक कहानियों की परम्परा विकसित हुई। इसी ‘इन्दु पत्रिका’ में सन् 1911 में ‘ग्राम’ कहानी प्रकाशित हुई जिसे बहुत से विद्वानों ने हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी माना है।
प्रसाद का युग
प्रसाद जी अपनी पत्रिका ‘इन्दु’ में निरन्तर मौलिक कहानियाँ देते रहे, जिससे न केवल हिन्दी का रिक्त कहानी भण्डार भरा अपितु अनेक लेखक भी कहानी लेखन की ओर आकृष्ट हुए। सन् 1909 में मैथिलीशरण गुप्त की ‘नकली किला’ और वृन्दावनलाल वर्मा की ‘राखी बन्द भाई’ कहानियाँ छप ही चुकी थीं। इसके अतिरिक्त प्रसाद जी की ‘ग्राम कहानी के बाद सन् 1911 में गंगाप्रसाद श्रीवास्तव की ‘पिकनिक’ और श्री चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की ‘सुखमय जीवन’ कहानियाँ छपीं विशवम्भनाथ शर्मा कौशिक की प्रथम कहानी ‘रक्षाबन्धन’ (जो पर्याप्त लोकप्रिय हुई) सन् 1913 में प्रकाशित हुई और 1913 में ही राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की पहली और अत्यन्त प्रसिद्ध कहानी ‘कानों में कंगना’ प्रकाशित हुई। चतुरसेन शास्त्री की पहली कहानी इनके एक वर्ष बाद सन् 1914 में प्रकाशित हुई, इसी वर्ष पं. ज्वालाप्रसाद शर्मा और बाबू शिवपूजन सहाय का भी कहानी साहित्य में प्रवेश हुआ और सन् 1915 में हिन्दी की अमर कहानी ‘उसने कहा था’ (चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ लिखित) प्रकाशित हुई। सन् 1916 में प्रेमचन्द के आने से पूर्व प्रसाद की अनेक कहानियाँ हिन्दी में प्रकाशित हो चुकी थीं और उनका एक विशिष्ट प्रभाव भी हिन्दी में अनेक कहानीकारों पर पड़ा था। प्रसाद की रोमांसवादी प्रकृति, उनकी काव्यात्मक शैली, आदि गुणों के कारण उनकी कहानियाँ बिल्कुल अलग से ही जान पड़ती थीं। इसीलिए प्रसाद की कहानियों का एक अलग स्कूल ‘प्रसाद स्कूल’ के नाम से जाना जाने लगा। इस स्कूल के कहानीकारों में पं. विनोदशंकर व्यास, चण्डीप्रसाद, ‘हृदयेश’ रामकृष्णदास, वाचस्पति पाठक, आदि के नाम प्रमुख है।
प्रेमचन्द युग
प्रेमचन्द का हिन्दी कहानी के क्षेत्र में पर्दापण सन् 1916 में हुआ। हिन्दी में उनकी पहली कहानी ‘पंच परमेश्वर’ प्रकाशित हुई थी। यद्यपि उर्दू में वे इससे पहले से लिखते रहे थे। प्रेमचन्द की कहानियों में समाज का चित्रण प्रमुख होता था। अकेले प्रेमचन्द ने 300 के लगभग कहानियाँ लिखकर हिन्दी कहानी साहित्य के भण्डार में गौरवमयी वृद्धि की। प्रेमचन्द के समकालीन अनेक कहानीकार हिन्दी में आये, जिन्होंने उनके प्रभाव को ग्रहण किया। सुदर्शन, जैनेन्द्र कुमार, पदमलाल पुन्नालाल बख्शी, आदि ने प्रेमचन्द से प्रेरणा ग्रहण कर लिखना प्रारम्भ किया। ‘प्रसाद स्कूल’ की भाँति ‘प्रेमचन्द स्कूल’ की चर्चा होती हैं। इस स्कूल में उपर्युक्त तीन कहानीकारों के अतिरिक्त चतुरसेन शास्त्री, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, भगवती चरण वर्मा, गोविन्द बल्लभ पन्त, आदि कहानीकारों ने भी अपनी-अपनी कहानियाँ लिखीं।
प्रगतिवादी युग
प्रेमचन्द के समय से ही प्रगतिवादी युग के चिह्न उभरने लगे थे। प्रेमचन्द ने अपनी ‘क्रन्दन’ कहानी में प्रगतिवाद को पूरी तरह से उभार कर प्रस्तुत कर दिया था। सन् 1932 के लगभग हिन्दी साहित्य में प्रगतिवादी आन्दोलन का विधिवत् सूत्रपात हुआ था और इसी समय से हिन्दी कहानियों पर इस आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। प्रगतिवाद पर दो विचारकों की गहरी छाप थी, एक तो कार्ल मार्क्स को और दूसरी फ्रायड की हिन्दी कहानीकारों पर इन दोनों विचारकों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा। यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, अमृतराय, नागार्जुन, रांगेय राघव आदि ऐसे कहानीकार हैं, जिन पर मार्क्स की विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। प्रेमचन्द युग के जैनेन्द्रकुमार, इलाचन्द्र जोशी, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, अज्ञेय, ‘अश्क’ पहाड़ी, आदि ऐसे उल्लेखनीय कहानीकार हैं जो मनोविश्लेषणवादी थे। इसी युग में एक और भी विचारधारा का प्रभाव कहानीकारों पर पड़ा और वह भी गाँधीवादी विचारधारा स्वयं प्रेमचन्द पर इस गाँधीवाद का बड़ा प्रभाव था। सुभद्राकुमारी चौहान, सियारामशरण गुप्त, विष्णु प्रभाकर आदि कहानीकारों पर गाँधीवादी विचार दर्शन का प्रभाव लक्षित किया जा सकता है।
इस युग में कुछ ऐसे कहानीकर भी हुए जो समाज का नग्न यथार्थ चित्रण करने में विश्वास करते थे। ऐसी अनेक यथार्थवादी कहानियाँ जहाँ चतुरसेन और उम्र ने लिखीं, यहाँ ऋषभचरण जैन ने भी लिखी, किन्तु ऋषभचरण की कहानियों में व्यक्त यथार्थ कृत्सित हो गया था। स्वस्थ यथार्थ के दर्शन हमें निराला जी की कहानियों में होते हैं। महादेवी जी ने भी अपने रेखाचित्रों में समाज के दीन पात्रों के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किये हैं। इस युग के अन्य कहानीकारों में राधाकृष्ण, मोहनलाल महतो, ‘वियोगी’, राधी, मोहनसिंह सेंगर, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, ऊप मित्रा, फमला चौधरी, हेमवतो, चन्द्रकिरण, सोनरिक्सा, अन्नपूर्णानन्द, भैरवप्रसाद गुप्ता, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
स्वातन्त्र्योत्तर युग
इस युग के अधिकांश कहानीकार तो ये हो रहे जो पहले से ही कहानी रचना में प्रवृत्त थे पर ‘स्वतन्त्रता-सूर्य के दर्शन’ से उनके विचार लेखन पद्धति एवं वयं विषय, आदि में परिवर्तन आ गया। इस काल में आदर्शवाद, मानववाद, समाजवाद, देशभक्ति, आदि से ओत-प्रोत कहानियाँ लिखी गर्मी समाज सुधार, अछूतोद्धार एवं पाक-चीन से सम्बन्धित अनेक कहानियाँ लिखी गयीं। इसी समय संस्मरणात्मक कहानी, पत्र एवं डायरी पद्धति की कहानी, आत्मकथा, आदि नवीन रूपों में कहानियाँ विरासत हुई। इस युग के कहानीकारों में विपुला चतुर्वेदी, लक्ष्मीनारायण लाल, गिरीश अस्थाना तथा राजेन्द्र यादव आदि अग्रगण्य है।
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वर्तमान युग
हिन्दी कहानी अपने वर्तमान युग में विभिन्न रूपेण विकसित हो रही है। आज हिन्दी कहानी जहाँ अपनी पुरानी परम्परा जो प्रसाद, प्रेमचन्द, यशपाल, अज्ञेय वाली है, में विकसित हो रही है, यहाँ कुछ नवीन दिशाओं को खोजने का प्रयत्न भी हो रहा है। शिल्प और नये कव्य बोध का आग्रह कुछ तरुण कहानीकारों में विशेष प्रबल दिखाई दिया है। इसलिए ‘नई कहानी’ का श्रीगणेश हुआ। नई कहानी के लिखने वालों में मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती के नाम मुख्य हैं। ‘नई कहानी’ के नाम से पत्र-पत्रिकाओं में खूब हो-हल्ला रहा है और नई कहानी लिखने वालों का प्रचार भी खूब हुआ है, अत: उनके प्रचार से प्रभावित होकर तथा नये नाम देने की लालसा से कुछ लोगों ने ‘सचेतन कहानी’ एक नया नाम दिया और इस ‘सचेतन’ कहानीकारों में महीप सिंह, मनहर चौहान, आनन्द प्रकाश जैन आदि के नाम नवी दिखायी दिये।
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इसी प्रकार ‘अकहानी’ की चर्चा भी हुई। इस प्रकार आज कहानी को भी कतिपय लोगों ने नये-नये नामों के चक्कर में उसी प्रकार फँसाना चाहा है। जिस प्रकार कुछ लोग बहुत पहले से कविता को फँसा चुके थे। किन्तु फिर भी कुछ तरुण कहानीकार इन जंजालों से सर्वथा मुक्त होकर कहानी लेखन में प्रवृत्त है और वे सुन्दर श्रेष्ठ और सफल कहानियाँ लिख भी रहे हैं। हिन्दी में बराबर नये प्रतिभावान कहानी लेखक और लेखिकाओं का प्रवेश हो रहा है। जिससे हमारी कहानी साहित्य के भण्डार की श्री वृद्धि हो रही है, नये प्रतिभावान कहानीकारों में सबके नाम गिनना तो असम्भव है तथापि मार्कण्डेय, रमेश बख्शी, रवीन्द्र कालिया, मुन्नु भण्डारी, ऊषा प्रियम्वदा, रजनी पन्निकर, लाडली मोहन, प्रह्लाद नारायण मित्तल, राजेन्द्र अवस्थी ‘दूषित’, कमल जोशी, सत्येन्द्रशरत आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आज पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ ही सबसे अधिक पढ़ी जाती हैं, परिणामस्वरूप अनेक नये-नये प्रतिभावान लेखक कहानी की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। कहानी का विकास विभिन्न चरणों। में हुआ है। कहानी के विकास में निरन्तर वृद्धि हो रही है यह अपने विकास की चरम अवस्था में है।