हिन्दी कहानी मधुआ का मूल्यांकन कीजिए।

हिन्दी कहानी मधुआ : जयशंकर प्रसाद– जयशंकर प्रसाद के गद्य लेखन में भी प्रायः छायावादी स्वच्छन्दतावार्य प्रवृत्तियां रेखांकित की जाती रही हैं। आलोचना ने एक ऐसा वातावरण निर्मित किया है कि रोमानी, भावुक, प्रेम-सौन्दर्य केन्द्रित, दार्शनिक तथा प्राचीन गौरव की प्रतिष्ठा के प्रति चिन्तित और प्रयत्नशील कवि-लेखक की ही उनकी छवि बनती उभरती है। परिणाम यह होता है कि उनकी यथार्थ चेतना की अभिव्यक्तियों पर अपेक्षित विचार कम ही हो पाता है। प्रसाद की सृजनशीलता का यह महत्वपूर्ण आयाम प्रायः अचर्चित छूट जाता है।

‘मछुआ’ जयशंकर प्रसाद की यथार्थ चेतना की अभिव्यक्ति की कहानी है। साधारण मनुष्य की प्रतिष्ठा का प्रगतिशील दृष्टिकोण इस कहानी की रचना-प्रक्रिया में उपस्थित है। इस कहानी में शराबी के परिवर्तन को हृदय परिवर्तन के आदर्शवादी सूत्रों से नहीं समझा जा सकता। यह व्यक्तित्वान्तरण है, जिसके पीछे प्रसाद की सामाजिक सोद्देश्यता की तर्क शक्ति क्रियाशील है। किसी भी कार्य के यदि तर्कसंगत भौतिक कारण नहीं है, तो वह कोरा भाववाद है। ‘मछुआ’ एक निठल्ले और आलसी व्यक्ति के श्रम उत्पादन की प्रक्रिया से जुड़ जाने और एक निराश्रित अनाथ बालक के जीवन-पोषण के दायित्व को स्वीकार करने के सकर्मक मूल्य की प्रतिष्ठा की एक अर्थपूर्ण कहानी है।

कहानी का शीर्षक भले ही उस निरीह बालक के नाम पर ‘मथुआ’ है, पर कहानी के केन्द्र में शराबी है। जयशंकर प्रसाद ने इस कहानी में शराबी के दो रूपों का चित्रण किया है। एक रूप के बारे में उसी के मुंह से सुनें-“सात दिन से एक बूंद भी गले न उतरी थी। भला मैं कैसे मुँह दिखा सकता था। और जब बारह बजे धूम निकली, तो फिर लाचारी थी उठा, हाथ-मुंह धोने में जो दुःख हुआ, सरकार, वह क्या कहने की बात है। पास में पैसे बचे थे। चना चबाने से दाँत माग रहे थे। कटकटी लग रही थी पराठेवाले के यहाँ पहुँचा, धीरे-धीरे खाता रहा और अपने को सेंकता भी रहा। फिर गोमती किनारे चला गया। घूमते-घूमते अंधेरा हो गया, बूंदें पड़ने लगी तब कहीं भाग के आपके पास आ गया।”

कहानी के अन्त तक आते-आते शराबी का एक दूसरा ही रूप सामने आता है। वह मधुआ से कहता है- “अच्छा तो आज से मेरे साथ-साथ घूमना पड़ेगा। यह कल तेरे लिए लाया हूँ। चल आज से तुझे सान देना सिखाऊंगा। कहाँ रहूंगा, इसका कुछ ठीक नहीं। पेड़ के नीचे रात बिता सकेगा न!” यह रूप परिवर्तन कोई सामान्य संदर्भ नहीं है। यह मरणधर्मी निष्क्रियता में जीवन का संचार है। इधर-उधर चापलूसी कर कहानियाँ सुना-सुनाकर दूसरों का मन बहलाकर शराब और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करके जीवन-यापन करने की जगह मेहनत-मजदूरी का रास्ता अधिक श्रेयस्कर है- यह कहानी इस विचार का प्रतिपादन करती है।

प्रसाद की यह कहानी गहरे अर्थ संकेतों वाली है। कहानी के कई अलग-अलग प्रसंगों में कई अर्थ-व्यंजनाएं मौजूद हैं। जब शराबी ने मधुआ से पूछा कि वह पेड़ के नीचे रात बिता सकता है या नहीं, तो प्रसाद मधुआ से बहुत अभिप्रायपूर्ण उत्तर दिलाते हैं कहीं भी रह सकूँगा, पर उस ठाकुर की नौकरी तो न कर सकूँगा!” यह कहीं बहुत गहरे में लघुमानव की वह चेतना है, जिसके भीतर शोषण और अन्याय की वर्चस्वशाली संरचना के प्रति प्रतिरोध की ऊष्मा विद्यमान है। सामन्तवाद से मुक्ति और स्वाधीनता के नये समाजार्थिक विकल्पों की ओर संकेत करने वाली प्रगतिशील इतिहास- चेतना सम्पन्न कहानी का भी एक पाठ बनता हुआ यहाँ अनुभव किया जा सकता है।

भगवतीचरण वर्मा के साहित्यिक अवदान को स्पष्ट कीजिए।

शराबी के मन में मधुआ के प्रति पैदा होने वाली करुणा और राग-तत्त्व के पीछे भी वर्गीय सहानुभूति के तत्त्व तलाश किये जा सकते हैं। यह भी अनुभव किया जा सकता है कि शराबी अपनी निष्क्रिय दिनचर्या और परजीविता के कारण आरम्भ में पाठक की सहानुभूति का पात्र भले न हो पाया हो, पर उसके भीतर, बहुत सूक्ष्म रूप में मानवीय संवेदना के तत्त्व मौजूद हैं। ठाकुर साहब और शराबी की बातचीत में करुणा और पीड़ा से भरी हुई कहानियों के सुनाये जाने के संदर्भ का कारण सहित उल्लेख दरअसल शराबी के मानवीय पक्ष को ही रेखांकित करता है। इसीलिए देखें तो शराबी का व्यक्तित्वान्तरण आकस्मिक नहीं है, वह एक प्रकार से निष्क्रिय चेतना का पुनर्जागरण है।

विषय के अनुरूप प्रसाद की इस कहानी की भाषा की प्रकृति भी यथार्थपरक है। जयशंकर प्रसाद गद्य में भी छायावादी तत्समप्रधान, काव्यात्मक भाषा के प्रयोग के लिए प्रसिद्ध है, पर ‘मधुआ’ की भाषा जीवन के यथार्थ परिदृश्य को अभिव्यक्त करती सामान्य जन व्यवहार के आस-पास की है। शिल्प में संयोग और नाटकीय तत्त्वों का सर्जनात्मक उपयोग कहानी को कलात्मक और सम्प्रेषणीय बनाता है।

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