हिन्दी साहित्य में आत्मकथा से आप क्या समझते हैं? इसके विकास की विश्लेषणात्मक व्याख्या कीजिए

हिन्दी साहित्य में आत्मकथा– ‘आत्मकथा’ हिन्दी गद्य की नवीनतम विधा है। इस प्रकार की साहित्यिक विधा में लेखक अपने जीवन से सम्बद्ध पटनाओं का वर्णन प्रस्तुत करता है। यह वर्णन पूर्ण आत्मीयता के साथ सुरुचिपूर्ण ढंग से रोचक शैली में किया जाता है। गद्य की अन्य नवीनतम विधाओं की ही तरह आत्मकथा का विकास भी आधुनिक काल की देन है। आत्मकथा ‘जीवनी’ के समान एक सरस संस्मरणात्मक विधा होती है। यद्यपि अन्य विधाओं की अपेक्षा आत्मकथा का प्रचलन बहुत कम है, तथापि तथ्यों के विवेचन के सन्दर्भ में इसके महत्व को स्योकार किया जाता है।

आत्मकथा दो शब्दों ‘आत्म’ और ‘कथा’ से मिलकर बना है, जिसका अभिप्राय: ‘अपनी कथा’ से होता है। अतः किसी व्यक्ति द्वारा अपने जीवन-वृत्त का सुस्पष्ट चित्रांकन ही ‘आत्मकथा’ कहलाती है। इस प्रकार आत्मकथा से आशय होता है कि कोई व्यक्ति अपने बोते हुए जीवन का व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध चित्रण प्रस्तुत करे अर्थात जब कोई व्यक्ति अपने विगत जीवन के क्रमिक विवरण प्रस्तुत करता है, तो उसे आत्मकथा कहा जाता है। आत्मकथाकार तटस्थ भाव से अपने स्वयं के गुण-दोषों का सम्यक प्रकार से प्रकाशन करता है।

परिभाषा – आत्मकथा की परिभाषाएँ निम्नवत है-

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव के अनुसार, “आत्मकथा में लेखक निष्पक्ष भाव से अपने गुण, दोषों की सम्यक् अभिव्यक्ति करता है और अपने चिन्तन, संकल्प-विकल्प, उद्देश्य एवं अभिप्राय को व्यक्त करने हेतु जीवन के अनेक महत्वपूर्ण पक्षों को उद्घाटित करता है। दूसरे शब्दों में इस साहित्यिक विधा में लेखक अपने वैयक्तिक जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को ही क्रमानुसार बाह्य सामग्रियों तथा स्मृति के आधार पर लिपिबद्ध करता है।”

डॉ. राजमणि शर्मा के अनुसार, “वास्तव में आत्मकथा एक प्रकार का इतिहास भी है जिसमें तटस्थ भाव की अपेक्षा रहती है। इसमें रचनाकार पूरे युग और परिवेश का एक प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयास करता है।”

डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार, “जब साहित्यकार अपने ही जीवन की कथा लिखता है तब उसे आत्मकथा कहा जाता है। इस प्रकार की कथा उतनी ही महत्वपूर्ण होती है, जितनी कि वह अपने समकालीन परिवेश से जुड़ी होती है। वास्तव में आत्मकथाकार का उद्देश्य समसामयिक परिस्थितियों के प्रकाश में अपने जीवन-व्यापारों का विवेचन तथा विश्लेषण करना होता है। ऐसा करते समय यह मानवीय जीवन के विविध पहलुओं के प्रति पूरी तरह सजग रहता है। “

पाठक कभी-कभी ‘आत्मकथा’ और ‘जीवनी’ को एक ही विधा मान लेते हैं। यद्यपि आत्मकथा जीवनी के अधिक निकट होती है, फिर भी दोनों में अन्तर है। आत्मकथा में लेखक के जीवन की कथा को चित्रित करता है, जबकि जीवनी में किसी अन्य व्यक्ति की जीवन-गाथा का चित्रण किया जाता है। इन दोनों विधाओं के सन्दर्भ में डॉ. राधिका प्रसाद त्रिपाठी का कथन है कि ” आत्मकथा की सर्वाधिक करीबी साहित्यिक विधा जीवनी है। दोनों में अन्तर केवल इतना है कि जीवनी किसी दूसरे व्यक्ति की जीवन कथा होती है, जबकि आत्मकथा अपने ही जीवन की कहानी है।”

इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि आत्मकथा में लेखक अपने बीते हुए जीवन की कथा को क्रमबद्ध रूप से स्मृति के आधार पर शब्दांकित करता है। इसमें आत्म-निरीक्षण का महत्व अधिक होता है।

आत्मकथा का विकास

हिन्दी गद्य की विधा ‘आत्मकथा’ का विकास भी आधुनिक युग से आरम्भ होता है। हिन्दी की प्रथम आत्मकथा लिखने का श्रेय बनारसीदास जैन को दिया जाता है, जिन्होंने सन् 1641 ई. में ‘अर्द्धकथनांक’ शीर्षक आत्मकथा लिखकर इस विधा का परिचय कराया। इससे ज्ञात होता है कि इस विधा का बीजारोपण 17वीं शताब्दी में ही हो गया था, परन्तु इसका वास्तविक विकास आधुनिक काल में भारतेन्दु युग से हुआ है। भारतेन्दु जी ने स्वयं 1910 ई. में ‘ कुछ आप बीती कुछ जग बीती’ शीर्षक आत्मकथा लिखकर इस विधा का श्रीगणेश किया था। प्रतापनारायण मिश्र, सुधाकर द्विवेदी, दयानन्द सरस्वती, सत्यानन्द अग्निहोत्री, अम्बिकादास व्यास तथा स्वामी श्रद्धानन्द इस युग के प्रमुख आत्मकथाकार हैं। इसके बाद द्विवेदी युग में स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘आत्मकथा’ शीर्षक लिखकर इस विधा पर अपनी कलम चलाई तथा इसे विकसित रूप प्रदान किया। इसके पश्चात् परमानन्द द्वारा लिखित ‘आपबीती’, रामविलास शुक्ल द्वारा लिखित ‘मैं क्रान्तिकारी कैसे बना’ आदि आत्कथाएँ प्रकाशित हुई। द्विवेदी युग के अन्य आत्मकथाकारों में इन्द्र विद्यावाचस्पति, भवानीदयाल संन्यासी आदि नाम विशेष महत्व के हैं।

द्विवेदी युग के पश्चात् बाबू श्यामसुन्दर दास की ‘मेरी आत्मकथा’ तथा प्रेमचन्द द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘हंस’ का आत्मकथांनक का प्रकाशन हुआ। इसी के पश्चात डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, विनोदशंकर व्यास, वियोगी हरि, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, यशपाल, वृन्दावनलाल वर्मा, डॉ. नगेन्द्र, रामदरश मिश्र, भीष्म साहनी, बाबू गुलाबराय सेठ गोविन्ददास, देवराज उपाध्याय, हरिभाऊ उपाध्याय, शान्तिप्रिय द्विवेदी, चतुरसेन शास्त्री, डॉ. हरिवंशराय ‘बच्चन’, राजकमल चौधरी, अमृतलाल नागर, राजेन्द्र यादव तथा कामतानाथ आदि विद्वानों ने आत्मकथा की रचना करके इस विधा के विकास को तीव्र गति प्रदान की।

हिन्दी गद्य के ‘यात्रा साहित्य’ से आप क्या समझते हैं? विस्तारपूर्वक बताइये।

महापुरुषों द्वारा लिखी गई आत्मकथाएँ पाठकों का मार्गदर्शन करती है तथा प्रेरणा देती हैं। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गाँधी तथा पं. जवाहरलाल नेहरू की आत्कथाएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। बाबू श्यामसुन्दर दास की ‘मेरी आत्मकहानी’, श्री वियोगि हरि को ‘मेरा जीवन प्रवाह’, बाबू गुलाबराय की ‘मेरी असफलताएँ’, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की ‘अपनी खबर’ तथा हरिवंशराय ‘बच्चन’ की ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ कुछ प्रमुख आत्मकथाएँ हैं।

इस प्रकार आत्मकथा लेखन एक कठिन कार्य है, क्योंकि इसमें लेखक को अपने विषय में निर्मम भाव से लिखना पड़ता है। यह एक संस्मरणात्मक विधा कही जा सकती है, जिसमें लेखक अपने जीवन में घटी हुई महत्वपूर्ण तथा मार्मिक घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन ही प्रस्तुत नहीं करता बल्कि अपने जीवन पर पड़े हुए विभिन्न प्रभावों का भी उल्लेख करता है। अतः उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि हिन्दी गद्य की आत्मकथा‘ विधा वर्तमान में अधिक समृद्ध विधा है।

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