भारतीय दण्ड संहिता के क्षेत्रातीत प्रवर्तन से सम्बन्धित प्रावधानों का वर्णन कीजिए। क्षेत्रातीत प्रवर्तन और प्रत्यर्पण में क्या अन्तर है ?

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 2 जहाँ भारत के क्षेत्र में दण्ड संहिता द्वारा दण्डनीय किसी कार्य के किये जाने पर उसके विचारण के सम्बन्ध में उपबन्ध करती है वहीं धाराएँ 3 एवं 4 भारत के क्षेत्र से बाहर किये गये अपराधों के विचारण के सम्बन्ध में प्रावधान करती हैं।

क्षेत्रातीत प्रवर्तन (Extra-Territorial Operation)

धारा 3 के अनुसार “भारत से परे किये गये अपराधों के लिए जो कोई व्यक्ति किसी भारतीय विधि के अनुसार विचारण का पात्र हो, भारत से परे किये गये किसी कार्य के लिए उसे इस संहिता के उपबन्धों के अनुसार ऐसा बरता जायेगा, मानों वह कार्य भारत के भीतर ही किया गया हो।” उपर्युक्त धारा की भाषा से स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार का कार्य करता है जिसके लिए उसके विरुद्ध किसी भी भारतीय विधि के अनुसार कार्यवाही की जा सकती है तो ऐसा कार्य भारत के विस्तार क्षेत्र से बाहर किये जाने के बावजूद भी वह भारतीय दण्ड संहिता के उपबन्धों के अनुसार दण्डित इस प्रकार किया जा सकेगा मानों उसने वह कार्य भारत के भीतर ही किया हो। यह धारा यह भी इंगित करती है कि यदि कोई विदेशी भारत में अपराध करता है तो वह उसके लिए दण्डनीय है, चाहे भले ही उस समय भारत में सशरीर उपस्थित न रहा हो। धारा 4 के अनुसार इस संहिता के उपबन्ध

प्लेटो की रिपब्लिक का प्रभाव बताइए।

  • भारत से बाहर और परे किसी स्थान में किसी भारतीय नागरिक द्वारा,
  • भारत में पंजीकृत किसी पोत या विमान पर, चाहे वह कहीं भी हो, किसी व्यक्ति द्वारा किये गये अपराधों को भी लागू हैं।

स्पष्टीकरण- इस धारा में ‘अपराध’ शब्द के अन्तर्गत भारत से बाहर किया गया ऐसा हर कार्य आता है जो यदि भारत में किया जाता हो, इस संहिता के अधीन दण्डनीय होता

उदाहरण-‘अ’ जो भारत का नागरिक है, युगांडा में हत्या करता है। उसको भारत के किसी स्थान में, जहाँ वह पाया जाय, हत्या के लिये विचारण करके दोषसिद्ध किया जा सकता है।

भारत से बाहर किये गये अपराधों के सम्बन्ध में दो तरह से विचारण किये जाने की व्यवस्था है- प्रथम तो अपराधी को विचारण के लिए उस राष्ट्र को सौंपा जा सकता है तथा दूसरे धारा 4 के अनुसार उसका विचारण किया जा सकता है। धारा 3 उन सभी मामलों में लागू होती है जिनमें कोई ऐसा कार्य किया गया हो जिसके लिए विचारण भारतीय न्यायालय कर सकते हों, फिर चाहे वह कार्य भारत से बाहर ही क्यों न किया गया हो। इसी प्रकार, धारा 4 वहाँ लागू होती है जहाँ आपराधिक कार्य किसी भारतीय नागरिक द्वारा भारत के क्षेत्र से बाहर किया गया है तथा किसी भी व्यक्ति द्वारा, चाहे वह भारतीय नागरिक हो अथवा नहीं, यदि अपराध किसी ऐसे जलयान पर किया जाय, जो भारत में पंजीकृत है।

संस्कारों के महत्व की विवेचना कीजिए।

ली कून ही बनाम स्टेट ऑफ यू० पी० ए० आई० आर० 2012 एस० सी० 1007, के मामले में अभियुक्त पर छल तथा आपराधिक न्यास-भंग आदि के आरोप थे। अभियुक्त अपराध कारित किये जाने के समय भारत में नहीं थे और न ही भारत के नागरिक थे। लेकिन माल भारत से प्रदाय किया गया था। यह अभिनिर्धारित किया गया कि उनको भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अभियोजित किया जा सकता है।

क्षेत्रातीत प्रवर्तन एवं प्रत्यर्पण में अन्तर (Differences between Extra-territorial operation and Extradition)

प्रत्यर्पण (Extradition) की विधि के अन्तर्गत एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का सहयोग करने के उद्देश्य से अपराधी को न्यायालय के सामने लाने के लिए सौंपता है परन्तु क्षेत्रातीत प्रवर्तन के मामले का सम्बन्ध राष्ट्र का उसके क्षेत्र से बाहर किये गये अपराधों के लिये अपराधों का विचारण किये जाने से है। प्रत्यर्पण, प्रत्यर्पण अधिनियम, 1962 द्वारा निर्देशित होते हैं। मोहम्मद साजिद बनाम केरल राज्य, 1995 Cr. L.J. 3313 के मामले में यह प्रतिपादित किया गया कि भारत से बाहर किये गये अपराध की जाँच के लिए केन्द्रीय सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक नहीं है तथा जाँच लोकल पुलिस द्वारा भी की जा सकती है।

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