विधि का यह एक सुस्थापित सिद्धान्त है कि “मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरे द्वारा किया गया कार्य मेरा कार्य नहीं है” (Actus me invito factus non est mens actus) । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि अनिच्छा से किया जाने वाला कार्य अपराध नहीं है। अपराध के गठन के लिए कार्य का स्वैच्छिक होना आवश्यक है। जब कोई कार्य धमकी, दबाव, विवशता आदि से किया जाता है तो वह उस व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य नहीं माना जाता है और इसीलिये वह अपराध की कोटि में नहीं आता।
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 94 में इस सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार “हत्या और मृत्यु से दण्डनीय उन अपराधों को, जो राज्य के विरुद्ध है, छोड़कर कोई बात अपराध नहीं है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाये जो उसे करने के लिए ऐसी धमकियों से विवश किया गया हो जिनसे उस बात को करते समय उसको युक्तियुक्त रूप से यह आशंका कारित हो गई हो, कि अन्यथा परिणाम यह होगा कि उस व्यक्ति की तत्काल मृत्यु हो जाये, परन्तु यह तब जबकि उस कार्य को करने वाले व्यक्ति ने अपनी ही इच्छा से या तत्काल मृत्यु से कम अपनी अपहानि की युक्तियुक्त आशंका से अपने को उस स्थिति में न डाला हो, जिसमें कि वह ऐसी मजबूरी के अधीन पड़ गया है।”
धारा 94 का संरक्षण प्राप्त करने के लिए निम्नांकित चार बातों को साबित किया जाना आवश्यक है
- यह कि व्यक्ति ने स्वेच्छा से अपने को दबाव के सम्मुख प्रस्तुत नहीं किया,
- यह कि भय जिसने कि कार्यवाही के लिए गतिशीलता प्रदान की, वह तुरन्त मृत्यु का भय था; तथा
- यह कि कार्य उस समय किया गया जबकि कर्ता के पास उसे करने या न करने पर मृत्यु के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था।
- व्यक्ति ने हत्या अथवा राज्य के विरुद्ध मृत्युदण्ड से दण्डनीय अपरा के अलावा कोई अपराध किया हो।
धारा 94 के अन्तर्गत क्षति के भय से उत्पन्न मानसिक दबाव की कोई भी मात्रा मृत्यु कारित करने या मृत्यु दण्ड से दण्डनीय राज्य के विरुद्ध कोई अपराध कारित करने की किसी भी परिस्थिति में माफ नहीं कर सकती। इस सीमा तक प्रतिबन्ध पूर्ण है।
हत्या तथा राज्य के विरुद्ध मृत्युदण्ड से दण्डनीय अपराधों के अतिरिक्त दबाव एक क्षमा किये जाने योग्य बचाव है, यदि कार्य तत्काल मृत्यु के भय से किया गया है। ऐसा भय कार्य किये जाने के समय अस्तित्व में होना आवश्यक है। यदि भय कार्य कारित होने के पूर्व था तो उसे बचाव प्राप्त नहीं होगा।
‘आर० बनाम राम अवतार’, ए० आई० आर० 1925 इलाहाबाद 315 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ एक नौकर मृतक के शरीर को अपने मालिक के दबाव के कारण हटाता है तो वह कोई अपराध नहीं करता है। उसका कार्य धारा 94 के अन्तर्गत संरक्षित है।
‘उमादासी देवी बनाम एम्परर‘, आई० एल० आर० 52 कलकत्ता 112 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ एक व्यक्ति मृतक का पैर पकड़ कर हत्या के दुष्प्रेरण का अपराध कारित करता है तथा वह ऐसा इसलिये करता है कि अन्यथा उसकी तत्काल मृत्यु सम्भाव्य है, वह धारा 94 के अन्तर्गत संरक्षित है।
‘बच्चनलाल बनाम स्टेट’, ए० आई० आर० 1957 इलाहाबाद 184 के मामले में अभियुक्त उस समय से लेकर जब उसने मृतक का पैर पकड़ा तथा जब उसने मृत शरीर को छिपाने में हत्यारों की सहायता की, बराबर तात्कालिक मृत्यु के भय के अन्तर्गत बना रहा था। इसे धारा 94 के अन्तर्गत संरक्षित माना गया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि भय, दबाब या विवशता के अधीन किया गया कार्य व्यक्ति का स्वयं का कार्य नहीं होने से धारा 94 के अन्तर्गत संरक्षित है।