पूस की रात: प्रेमचन्द ‘पूस की रात’ प्रेमचन्द की एक प्रौढ़तर यथार्थवादी कहानी है। यह प्रेमचन्द की रचना -दृष्टि की विकास-यात्रा का भी विश्वसनीय साक्ष्य है। कल्पना और आदर्शवाद की सीमाओं से मुक्त सामाजिक-आर्थिक यथार्थ की गहरी और निति चेतना का ऐसा प्रामाणिक प्रतिफलन हिन्दी कहानी के इतिहास में इसके पूर्व सम्भव नहीं हुआ था।
सामन्तवाद और महाजनी सभ्यता के साथ किसान जीवन के विडम्बनापूर्ण सम्बन्धों के अन्तर्बाह्य यथार्थ को अपने उत्तर-जीवन में प्रेमचन्द ने पूरी वस्तुपरकता के साथ समझना और विश्लेषित करना आरम्भ कर दिया था। प्रेमचन्द की यथार्थ चेतना के विकास का यह क्रान्तिककरी चरण था ‘पूस की रात’ जैसी कहानी इस विकसित चेतना और परिप्रेक्ष्य के बिना सम्भव नहीं थी। यह वस्तु चेतना तथा कला-चेतना, दोनों के विकास और समन्वय का समय था ।
भगवती चरण वर्मा के कृतित्व पर टिप्पणी लिखिए।
‘पूस की रात’ केवल हल्कू और मुन्नी की कहानी नहीं है। यह जमीन के एक छोटे से टुकड़े की उपज के सहारे जीवन बसर करने वाले असंख्य भारतीय किसानों की त्रासदी हैं, जो श्रम तो करते हैं, परन्तु उत्पादन पर दूसरों का कब्जा हो जाता है। पूस की रात में सर्दी से जूझते हल्कू के आत्मसंवाद में अन्याय और असमानता की यही विडम्बना मूर्त होती है- “यह खेती का मजा है! और एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाये तो गरमी से घबड़ाकर भागे। मोटे-मोटे गरे, लिहाफ, कम्बल मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाये। तकदीर की खूबी है मजुरी हम करें, मजा दूसरे लूटें।” किसान-जीवन की यही ग्रासदी मुनी के संवाद में भी मुखर हुई है। कर्ज में डूबी हुई जिन्दगी की मुक्ति का कोई उपाय किसान के पास नहीं है। खेती तो जैसे केवल कर्ज पाटने के लिए है, वह भी पटता नहीं। हमेशा शेष रह जाता है। इन स्थितियों में फंसे हुए किसान का श्रम-कर्म से मोहभंग तो होना ही है। मुन्नी कहती है- “मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते?” मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो ऐसी खेती से बाज आये।” इन संवादों में ही कहानी के अन्त का रहस्य निहित है। इसकी व्याख्या के तर्क सूत्र उपर्युक्त संवादों में प्राप्त हो जायेंगे। श्रम के परिणाम से विच्छिन्न कर दिये जाने का सामाजिक-आर्थिक यथार्थ हल्कू की इस निस्संग मनोदशा का तार्किक कारण है।
इस कहानी की शक्ति इसकी अन्तर्वस्तु और कला के संतुलन में केन्द्रित है। यह एक छोटी जोत वाले किसान के व्यक्तिगत दुःख से आगे उस त्रासद यथार्थ की कहानी है, जिसका सम्बन्ध पुरानी सामन्ती कृषि व्यवस्था से है। बिना एक स्पष्ट समाजार्थिक विचार दृष्टि के इस यथार्थ का रूपान्तरण असम्भव था। प्रेमचन्द की सर्जनात्मकता का यह विलक्षण उदाहरण है कि इस कहानी में विचार-तत्व इतना प्रच्छन्न और मंश्लिष्ट रूप में उपस्थित हुआ है कि वह कहानी की कलात्मकता के लिए कोई अवरोध नहीं बनता। ऐसी विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु का कलातत्त्वों के साथ यह संतुलन प्रेमचन्द ही उपलब्ध कर सकते थे।