पृथक्करणीयता – संविधान के अनुच्छेद 13 के खण्ड (1) में प्रयुक्त वाक्यांश ‘ऐसी असंगति की सीमा तक’ (to the extent of such inconsistency) और खण्ड (2) में प्रयुक्त वाक्य “उल्लंघन की सीमा तक’ (to the extent of contravention) से संविधान निर्माताओं का यह आशय जाहिर होता है कि मूल अधिकारों से असंगत या उनका उल्लंघन करने वाली संविधान पूर्व विधि या संविधानोत्तर विधि के केवल वे ही भाग असंवैधानिक घोषित किये जायँ, जो मूल अधिकारों से अंसगत हों या उनका उल्लंघन करते हों, सम्पूर्ण विधि को अवैध घोषित करने की आवश्यकता नहीं है। इस व्याख्या के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने ‘पृथक्करण का सिद्धान्त’ प्रतिपादित किया है, जिसका अर्थ यह है कि यदि किसी अधिनियम का असंवैधानिक भाग उसके शेष भाग से, बिना विधायिका के आशय को विफल किये, या पूरे अधिनियम के मूल उद्देश्य को समाप्त किये बिना, अलग किया जा सकता है, तो केवल मूल अधिकारों से असंगत वाले भाग को ही असंवैधानिक घोषित किया जायगा, पूरे अधिनियम को नहीं।
उदाहरण के लिए ए० के० गोपालन बनाम मद्रास राज्य (AIR 1950 SC 27 ) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निवारक निरोध अधिनियम, 1950 की धारा 14 को असंवैधानिक घोषित किया था और कहा था कि इस धारा को अधिनियम से अलग कर देने पर अधिनियम की प्रकृति, संरचना या उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं होता था और धारा 14 को असंवैधानिक घोषित कर देने से शेष धाराओं की वैधता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था।
इसी प्रकार बम्बई राज्य बनाम बालसरा, (AIR 1951 SC 318) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने बम्बई प्रान्त के मद्य निषेध अधिनियम, 1949 के केवल कुछ उपबन्धों को असंवैधानिक घोषित किया था और शेष अधिनियम संवैधानिक रूप से वैध बना रहा।
किन्तु यदि अधिनियम का असंवैधानिक भाग उसके संवैधानिक भाग से अभिन्न रूप से इस प्रकार जुड़ा हुआ हो कि असंवैधानिक भाग को अलग करने पर अधिनियम का उद्देश्य विफल हो जाता हो, तो न्यायालय पूरे अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर देगा। किसी अधिनियम का कोई असंवैधानिक भाग उसके संवैधानिक भाग से अलग किये जाने योग्य है या नहीं इस बात के लिए निर्णायक तत्व विधायिका का आशय होता है।